संघर्ष की आग में तपता विश्वास: जब जिम्मेदारियों का बोझ और अपनों की साजिश साथ-साथ हो_____________
संत कबीर नगर 04 जून 2025,
जीवन में जब अचानक तमाम जिम्मेदारियाँ एक साथ आ पड़ें, तो व्यक्ति भीतर से हिल जाता है। खासकर तब, जब वह अपने परिवार की रीढ़ बन चुका हो—घर की जरूरतें, नौकरी का दबाव, सामाजिक मान-मर्यादाएं, सब कुछ उसी के कंधों पर हो। लेकिन उससे भी बड़ी पीड़ा तब होती है, जब अपने ही लोग विश्वासघात करने लगें, साजिशें रचने लगें, और परिवार का वह सदस्य जिसे संबल बनना चाहिए, विपत्ति में साथ देने की जगह अन्याय का साथ देने लगे। ऐसी ही स्थितियों से आज कई युवा गुजर रहे हैं। एक ओर घर का बड़ा बेटा, जो हर दर्द को छिपा कर अपने कर्तव्यों का पालन कर रहा है, दूसरी ओर उसका अपना भाई, जो शराब और असंयम की आदतों में पड़ चुका है,और दुर्भाग्यवश, पिता उसी बिगड़ैल बेटे का समर्थन कर रहा है। यह समर्थन सिर्फ मौन नहीं, बल्कि सक्रिय सहयोग में बदल चुका है। यह वही पिता है जिसने कभी जीवन के आदर्श सिखाए थे, लेकिन आज वह नैतिकता के विपरीत खड़ा दिखाई देता है। बड़े भाई की भूमिका हमेशा संजीदा और संयमी मानी जाती है, लेकिन जब वही भाई अपने छोटे भाई के हाथों बार-बार अपमानित होता है, अपने अधिकारों से वंचित किया जाता है, और हर प्रयास के बाद भी गलत को गलत कहने की आज़ादी नहीं मिलती, तब उसके अंदर का दर्द, उसका टूटना, उसके भीतर की चुप्पी एक आक्रोश में बदलने लगती है। धार्मिक और सामाजिक संस्कारों में सिखाया गया है कि परिवार में परस्पर सहयोग और प्रेम होना चाहिए। लेकिन जब घर एक रणभूमि बन जाए और अपनों की पहचान साजिशों में खो जाए तब बड़ा भाई भी टूट जाता है ऐसी हालत में उसकी मानसिक स्वास्थ्य प्रभावित होता है युवावस्था की ऊर्जा नष्ट होती है और वह व्यक्ति आत्म संघर्ष के ऐसे दौर में गिर जाता है जहां न कोई मार्गदर्शक होता है ना कोई हमदर्द क्योंकि हर आदमी “डॉक्टर चंद्रभान नहीं हो सकता जो दूसरों की मदद करता फिरे” आज समाज में ऐसे युवाओं की पीड़ा नहीं समझाने पर पूरा परिवार नष्ट हो जाता है सिर्फ शराब पीने वालों को प्रोत्साहित करना मतलब अपने आप को खुश करना और दंड सहना। धर्म संस्कार और न्याय को ताप पर रखकर किसी एक की गलतियों को छुपाना पूरे परिवार को खोखला कर देता है। आज का समय यह है कि हम परिवार में न्याय और सत्य को प्राथमिकता दें अन्यथा पूर्वजों की कीर्ति कलंकित होगी जो लोग जीवन भर जिम्मेदारियां से भागते रहे हैं उनके बस का नहीं है जिम्मेदारियां धोना रुपए कामना अलग बात है। आज जिनके पास पैसा नहीं है सिर्फ कर्तव्य है संस्कार है संस्कृति है उसको लोग सिर्फ आवश्यकता पड़ने पर यूज करते हैं। जो अपने लाभ के लिए अपनों को नुकसान पहुंचाते हैं उन्हें परिवार और समाज को जवाब दे बनाना ही होगा तभी सच्चा संतुलन और सशक्त समाज संभव है।