संत कबीर नगर। आज जब मीडिया का स्वरूप तेजी से बदल रहा है, तो पत्रकारिता का मूल उद्देश्य और उसकी पवित्रता भी सवालों के घेरे में है। पत्रकारिता कभी एक तपस्या मानी जाती थी—सत्य की खोज, जनमानस की आवाज, और सत्ता से सवाल पूछने का साहस। लेकिन वर्तमान में यह चिंता का विषय है। कई स्थानों पर पत्रकारिता अपने मूल धर्म से भटकती दिख रही है।
यह लेख एक आत्ममंथन है—पत्रकारों के लिए, समाज के लिए, और संपादकों के लिए। पत्रकारिता का धर्म क्या है? पत्रकारिता का पहला धर्म है सत्य। न पक्ष, न विपक्ष सिर्फ तथ्य। जब एक पत्रकार कलम उठाता है, तो वह समाज के विश्वास का प्रतिनिधि होता है। वह जनता की आंख, कान और नाक के साथ साथ कभी-कभी आवाज भी बन जाता है। वह अगर सत्य से समझौता करता है, तो वह सिर्फ अपने पेशे से नहीं, बल्कि लोकतंत्र से भी विश्वासघात करता है।
धन और लाभ का आकर्षण बीते कुछ वर्षों में देखा गया है कि कुछ पत्रकारों ने पत्रकारिता को धंधा बना लिया है। पैसा लेकर खबरें छापना, विज्ञापन के नाम पर ब्लैकमेलिंग करना, सत्ता या रसूखदारों के चरणों में झुक जाना—यह सब पत्रकारिता की आत्मा के खिलाफ है। जब पत्रकार बिकता है, तो जनता का विश्वास मरता है। क्या इस पेशे में मेहनताना नहीं होना चाहिए? बिल्कुल होना चाहिए। लेकिन पत्रकारिता में आने का उद्देश्य सिर्फ रोजगार या रुतबा नहीं हो सकता यह एक सेवा का भाव है जब पत्रकार खबरों को धर्म, जाति, राजनीति एजेंडे या निजी स्वार्थ से रंग देता है तब वह जनतंत्र की रीढ़ तोड़ता है। हर समाचार संस्थान का संपादक पत्रकारिता की आत्मा का रक्षक होता है। आज भी भारत में हजारों पत्रकार ऐसे हैं जो प्रतिकूल परिस्थितियों में जान जोखिम में डालकर बेखौफ होकर सच्चाई जनता तक पहुंचा रहे हैं जबकि इसके एवज में उनको कोई वेतन नहीं मिलता। वही पत्रकार इस पेशे में असली उम्मीद है। युवा पत्रकारों को चाहिए कि वह आदर्श बने। जैसे गणेश शंकर विद्यार्थी या रवीश कुमार जैसे निर्भीक पत्रकार। अंत में यही लिखा जा सकता है की पत्रकारिता नौकरी नहीं एक जिम्मेदारी है यह केवल अखबार का पन्ना भरने का कार्य नहीं करती बल्कि समाज को दिशा देने का भी कार्य करती है जिस दिन कलम की ताकत खत्म हो जाएगी उसी दिन लोकतंत्र भी खत्म हो जाएगा। अब समय है उसे पत्रकारिता की तरफ लौटने का जो सत्ता से नहीं जो सत्य से जुड़ी हो।